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सऊदी अरब में इस्लाम धर्म के दो सबसे पवित्र शहर मक्का और मदीना

सऊदी अरब सरकार ने देश की सभी मस्जिदों और उसके कैंपस में इफ्तार करने पर प्रतिबंध लगा दिया

सऊदी अरब में इस्लाम धर्म के दो सबसे पवित्र शहर मक्का और मदीना हैं. हाल ही में सऊदी अरब सरकार ने देश की सभी मस्जिदों और उसके कैंपस में इफ्तार करने पर प्रतिबंध लगा दिया है. पाबंदी की वजह मस्जिदों में गंदगी फैलाना बताया गया. वहीं इसी दौरान सऊदी अरब से करीब 3 हजार किमी दूर तुर्किए में इस्तांबुल शहर की मस्जिदों में एक अनोखी पहल की शुरुआत की जाती है. यहां की मस्जिदों में अब नमाज के बाद लोग अपनी शारीरिक सेहत का भी ख्याल रख रहे हैं. शाम को नमाज के बाद नमाजियों के लिए वर्कआउट का खास सेशन चलाया जा रहा है. सऊदी अरब और तुर्किए दो अलग-अलग इस्लामिक देश हैं. दोनों देशों के मस्जिदों में लिए गए फैसलों का अलग-अलग मतलब निकला जा रहा है. ये कहना गलत नहीं होगा कि एक तरफ सऊदी अरब की मस्जिदों में लोगों को ज्यादा देर तक वहां रुकने या समय बिताने से रोका जा रहा है, दूसरी तरफ तुर्किए में नमाज के बाद भी ज्यादा समय तक लोगों को रुके रहने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है.आखिर ऐसे हालात में हम समझने की कोशिश करते हैं कि इस्लाम में मस्जिद का धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक महत्व क्या है और मस्जिद में इफ्तार न करने देने के पीछे की मंशा क्या है.

पहले जानिए सऊदी सरकार का पूरा आदेश इस्लाम धर्म का सबसे पवित्र महीने यानी रमजान की शुरुआत होने वाली है. रमजान के महीने में दुनियाभर से लाखों मुस्लिम समुदाय के लोग हज यात्रा पर सऊदी अरब के पवित्र शहर मक्का और मदीना जाते हैं. अब रमजान से ठीक पहले सऊदी सरकार के इस्लामिक मामलों के मंत्रालय ने कुछ दिशानिर्देश जारी किए हैं.मंत्रालय ने इमामों और मुअज्जिनों को निर्देश दिया है कि इफ्तार के लिए चंदा इकट्ठा नहीं किया जाना चाहिए, न ही स्वच्छता बनाए रखने के लिए इफ्तार का आयोजन मस्जिद के अंदर या उसके कैंपस में किया जाना चाहिए. इफ्तार के लिए मस्जिद परिसर में किसी भी तरह का अस्थायी कमरा या तंबू भी नहीं बनाया जाना चाहिए. इफ्तार का आयोजन मस्जिद के बाद इमाम और मुअज्जिनों की देखरेख में होगा. इफ्तार के बाद स्थान की सफाई करना उसी व्यक्ति की जिम्मेदारी होगी जिसने इफ्तार का आयोजन किया है. साथ ही सरकार ने कहा है कि मस्जिदों के कर्मचारी, इमाम और मुअज्जिन रमजान महीने के दौरान नियमित रूप से उपस्थित रहेंगे. नमाज के समय गैरहाजिर नहीं होना चाहिए. नमाज के दौरान मीडिया में प्रसारण नहीं होगा ताकि नमाजियों के श्रद्धा भाव में कोई बाधा न आए. मुअज्जिनों को उम्म अल-कुरा कैलेंडर के अनुसार अज़ान देने का समय मानना चाहिए. भिखारियों के मस्जिद में प्रवेश पर प्रतिबंध है.अब समझिए मस्जिद में इफ्तार न करने का राजनीतिक अर्थ रमजान से पहले सऊदी अरब सरकार का मस्जिद में इफ्तार पर रोक लगाने का क्या राजनीतिक अर्थ है? इस मुद्दे पर एबीपी न्यूज ने कतर में इकनॉमिक्स टाइम्स के रिपोर्टर रहे मोहम्मद शोएब से खास बातचीत की. उनका कहना है कि सऊदी अरब में जनता की चुनी हुई नहीं, बल्कि एक शासक सरकार है जिसका मकसद कुछ और लग रहा है. सरकार का ये फैसला विरोध का कारण बन सकता है. मस्जिद में इफ्तार पर पाबंदी लगाना पहला कदम है. संभव है कि आवाम को दबाने के लिए यहां की सरकार दूसरे बड़े फैसले भी ले सकती है. शोएब  ने कहा, रमजान के समय मुसलमान बहुत ज्यादा समर्पित हो जाते हैं और धर्म उन पर हावी हो जाता है. इफ्तार के बहाने हो सकता है कि सरकार कुछ और भी ऑर्डर पास करना चाहती है. रमजान के समय मक्का-मदीना में लाखों की तादाद में लोग आते हैं. वहां इफ्तार करते हैं. सऊदी सरकार चाहती है कि इतनी तादाद में लोग एक साथ इकट्ठा न हों कि भीड़ पर काबू पाना मुश्किल हो जाए.

सऊदी सरकार को किस बात का है डर?जनर्लिस्ट शोएब ने सऊदी अरब पर दुनिया के दबाव का भी जिक्र किया. उन्होंने कहा, फिलीस्तीन और इजरायल युद्ध पर सऊदी अरब सरकार का जो रुख है उससे वहां के लोगों में गुस्सा है. सऊदी सरकार नहीं चाहती है कि मस्जिदों में लोग इकट्ठा हों और उनके खिलाफ कोई विद्रोह खड़ा हो जाए. जैसे इजिप्ट में तहरीरे चौक पर हुआ था.उन्होंने आगे समझाते हुए बताया कि इजरायल-गाजा-फिलीस्तीन युद्ध के मुद्दे पर अरब देशों की सत्तारूढ़ सरकारें खास तौर से सऊदी अरब, यूएई, इजिप्ट और जॉर्डन शांत हैं. ये देश इजरायल, अमेरिका और पश्चिमी देशों के खिलाफ नहीं जा सकते. सऊदी अरब के मोहम्‍मद बिन सलमान, जॉर्डन के किंग अब्दुल्ला द्वितीय, यूएई के मोहम्मद बिन जायद काफी दबाव में हैं. इन देशों को कठपुतली वाली सरकारें कहा जा सकता है.इस्लाम में मस्जिद का क्या है धार्मिक महत्वमस्जिद का महत्व जानने के लिए एबीपी न्यूज ने जामिया यूनिवर्सिटी में डिपार्टमेंट ऑफ इस्लामिक स्टडीज के सीनियर फैकल्टी जुनेद हारिस से बातचीत की. प्रोफेसर जुनेद हारिस ने कहा, मस्जिद को अल्लाह का घर कहा जाता है.माना जाता है कि काबा में सबसे पहले हजरत आदम अलैहिस्सलाम ने नमाज पढ़ी थी. आदम पहले मर्द थे जिन्होंने पहली मस्जिद का निर्माण कराया. इसके बाद हजरत इब्राहिम अलैहिस्सलाम और प्रोफेट मोहम्मद ने भी इसी स्थान पर मस्जिद का निर्माण कराया. इस स्थान को आज मक्का के नाम से जाना जाता है. इसके बाद प्रोफेट मोहम्मद मदीना गए, वहां भी उन्होंने मस्जिद की बुनियाद रखी. प्रोफेसर हारिस का कहना है कि इस्माल में पांच बार नमाज पढ़ना मर्दों का फर्ज कहा गया है. महिलाओं को इजाजत है कि वह अपनी मर्जी से नमाज पढ़ सकती हैं. इबादत कहीं भी हो सकती है लेकिन मस्जिद को खास इबादत के लिए ही बनाया गया है. मस्जिद में इबादत के अलावा किसी दूसरे काम के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता है. मस्जिद के बगैर किसी मुसलमान के जिंदगी की कल्पना नहीं की जा सकती.इस्लाम में मस्जिद का क्या है सामाजिक महत्व
प्रोफेसर हारिस ने इस्लाम में मस्जिद का सामाजिक महत्व अच्छे से समझाया. उन्होंने कहा, मस्जिद में नमाज के समय जब हम जाते हैं तो पहले पहुंचने वाला इंसान आगे खड़ा होता है, बाद में पहुंचने वाला पीछे रहता है. नमाज पढ़ते वक्त सभी एक साथ खड़े होते हैं. इसमें किसी तरह का छोटा, बड़ा, अमीर, गरीब, गोरा, काला का भेदभाव नहीं किया जाता. सभी लोग एक लाइन में एकदूसरे से कंधे और पैर मिलाकर खड़े होते हैं. वहां एक इमाम होता है जो नमाज करवाता है. सभी लोग उनका का अनुसरण करते हैं.उन्होंने आगे कहा, इस्लाम में समाज को अलग-अलग स्तर पर जोड़ने की कोशिश की गई है. पहला- मर्दों को अपने आसपास मौजूद मस्जिद में पांच बार नमाज पढ़ने के लिए कहा गया. फिर हफ्ते में एक दिन शुक्रवार को बड़ी जगह पर सभी लोग एकत्र होकर नमाज पढ़ते हैं. फिर साल में एक या दो बार ईद और बकरीद पर पूरे शहर के लोग एक साथ एक जगह पर नमाज पढ़ने जाते हैं. अब अगर किसी के पास पैसा है तो पूरी दुनिया के लोग एक साथ मक्का-मदीना में एकत्र होते हैं. अगर कोई मरीज है जो उठकर नहीं चल सकता, उसके लिए छूट है.ये तो बराबरी की बात हो गई. इसके अलावा नियमित रूप से मस्जिद जाने से दूसरे लोगों से बातचीत होती है. तो उनके हालचाल का पता चल जाता है. जब कोई मस्जिद में दिखता नहीं है तो लोग उसके बारें में बात करते हैं, उसका हालचाल पूछ लेते हैं.

इस्लाम में मस्जिद का क्या है सांस्कृतिक महत्व
प्रोफेसर हारिस ने मस्जिद का सांस्कृतिक महत्व बताते हुए कहा, सबसे पहली मस्जिद का निर्माण काबा में हजरत आदम अलैहिस्सलाम ने कराया था. फिर उनके पुत्रों ने उस संस्कृति को आगे बढ़ाया. ये मान्यता है कि इस्लाम प्रोफेट मोहम्मद से नहीं, बल्कि आदम अलैहिस्सलाम से शुरू होता है.

इस्लाम की पूरी संस्कृति का केंद्र मस्जिद को माना गया है. मस्जिद में नमाज तो पढ़ी ही जाती है. साथ ही देखा जाए तो इंसान का पूरा जीवन भी मस्जिद से जुड़ा हुआ होता है और यहीं से ही आगे बढ़ती है.

इस्लाम में मस्जिद का क्या है राजनीतिक महत्व
प्रोफेसर हारिस ने कहा कि मस्जिद पर सियासत होना मुद्दा नहीं होना चाहिए. इस्लाम में खुदा को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है. इंसान को उसका गुलाम माना जाता है. जब हम उसके सामने झुकते हैं तो कोई इंसान छोटा-बड़ा नहीं होता. मस्जिद में ऐसा भी हुआ है जब किसी जंग-ए-कैदी को गिरफ्तार किया गया तो उसे मस्जिद में लाकर रखा गया. जब वह यहां आते लोगों को नमाज पढ़ते देखता है तो कुछ दिनों में सुधर जाता है.

मस्जिद इबादत की जगह है. यहां किसी से मारपीट या अपराध करने की इजाजत नहीं. राजनीति के लिए मस्जिद का इस्तेमाल किया जाना गलत है. हां, इंसानी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए साफ नीयत से कुछ कामों को यहां से किया जा सकता है.

सऊदी की मस्जिदों में इफ्तार पर प्रतिबंध का फैसला सही या गलत?
प्रोफेसर हारिस ने सऊदी अरब की मस्जिदों में इफ्तार पर प्रतिबंध लगाने के मुद्दे पर भी बात की. उनका कहना है कि सऊदी अरब में हर बार रमजान से पहले ऐसा एक फरमान जारी होता है जिसमें बताया जाता है व्यवस्था कैसे बेहतर की जाए.

उन्होंने आगे कहा, अक्सर जब मस्जिद के भीतर खाने की व्यवस्था की जाती है तो वहां आए नमाजियों को काफी परेशानी होती है क्योंकि फिर नमाज पढ़ने के लिए जगह कम हो जाती है. इस बार सरकार ने फरमान जारी कर दिया कि खाने पीने का इंतजाम मस्जिद के अंदर नहीं होगा. ये सब कुछ बाहर करिए. इफ्तार के लिए मना नहीं किया गया है. बस मस्जिद में करने के लिए मनाही है. मस्जिद का पहला मकसद इबादत करना है. इसलिए इंतजाम ऐसा होना चाहिए जिससे इबादत के लिए लोगों को परेशानी न हो.

JNS News 24

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