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कभी सोचा है कि साड़ी एक नारी की जिंदगी का हिस्सा कब से है? साड़ी भारतीय महिलाओं का पारंपरिक पहनावा है. ‘

आज भले ही साड़ी एक फैशनेबल लिबास है, मगर इसकी शुरुआत हजारों साल पहले एक साधारण से कपड़े से हुई थी

कभी सोचा है कि साड़ी एक नारी की जिंदगी का हिस्सा कब से है? साड़ी भारतीय महिलाओं का पारंपरिक पहनावा है. ‘साड़ी’ शब्द संस्कृत के ‘साटी’ शब्द से आया है, जिसका मतलब होता है ‘कपड़े की पट्टी’. दिलचस्प बात ये है कि संस्कृत साहित्य में इसे ‘सात्तिका’ और बौद्ध साहित्य में ‘जातक’ के नाम से भी जाना जाता था.साड़ी पहनने और बनाने का तरीका भारत के अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग होता है. कहीं सबसे सस्ती साड़ी सिर्फ 500 रुपये में मिल जाती है, तो कहीं बेहतरीन साड़ियों की कीमत उससे 4000 गुना ज्यादा हो सकती है.साड़ी एक लंबा कपड़ा होता है जो कई तरह के कपड़ों, डिजाइनों और रंगों में आता है. इसे एक खास तरीके से शरीर पर लपेटा जाता है. साड़ी की लंबाई कई चीजों पर निर्भर करती है. जैसे उम्र, मौका और मौसम. आम तौर पर इसकी लंबाई 6 से 9 मीटर के बीच होती है. साड़ी के साथ नीचे ‘पटका’ या ‘पावड़ा’ और ऊपर ‘चोली’ या ‘रविका’ पहना जाता है.

सिंधु घाटी से लेकर कपास के खेतों तक आज भले ही साड़ी एक फैशनेबल लिबास है, मगर इसकी शुरुआत हजारों साल पहले एक साधारण से कपड़े से हुई थी जिसे महिलाएं लपेटकर पहनती थीं. साड़ी जैसी किसी पोशाक या फिर इसी तरह के कपड़े पहनने का रिवाज सिंधु घाटी सभ्यता (लगभग 2800 से 1800 ईसा पूर्व) के समय से ही चला आ रहा है. ये सभ्यता भारत के उत्तर-पश्चिमी इलाके में हुआ करती थी.साड़ी बनाने की शुरुआत कपास से हुई थी. कपास की खेती सबसे पहले भारतीय उपमहाद्वीप में करीब 5000 ईसा पूर्व शुरू हुई थी. धीरे-धीरे कपास की बुनाई का चलन बढ़ा. उस समय के बुनकर प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करते थे. जैसे कि नील, लाख, आलता और हल्दी. इन रंगों से रंगे कपड़े को महिलाएं अपने ऊपर लपेटकर पहनती थीं, ये उन्हें ढकने के काम आता था.

पहले महिलाएं तीन टुकड़ों में पहना करती थीं साड़ी दरअसल, पहले के जमाने में साड़ी तीन टुकड़ों का जोड़ हुआ करती थी. ‘अंतर्वस्त्र’ जो नीचे पहना जाता था, ‘उत्तरीय’ जो कंधे या सिर पर ओढ़ा जाता था और ‘स्थनापट्ट’ जो छाती को ढकने के लिए होता था. ये तकरीबन छठी शताब्दी ईसा पूर्व की बात है. इन तीनों टुकड़ों को मिलाकर पोशाक कहा जाता था. आगे चलकर ‘अंतर्वस्त्र’ धोती या साड़ी पहनने के तरीके जैसा बन गया. बाद में ये ‘भैरवीवासी’ नाम की स्कर्ट बन गया, जिसे आजकल हम घाघरा या लहंगा के नाम से जानते हैं. वहीं ‘उत्तरीय’ दुपट्टा में और ‘स्थनापट्ट’ चोली में बदल गया.पहले जमाने में महिलाएं कई तरह की साड़ियां पहनती थीं, जो हाथ से करघे पर बनी होती थीं. रेशम, कपास, इकत, ब्लॉक प्रिंट, कढ़ाई और टाई-डाई कपड़ों से बनीं ये साड़ियां हर इलाके की खास होती थीं. कुछ मशहूर साड़ियों में बनारसी, कांचीपुरम, गडवाल, पैठणी, मैसूर, उप्पडा, भागलपुरी, बालूचरी, महेश्वरी, चंदेरी, मेखला, गीचा और एरी शामिल हैं.

सदियों का सफर, हर महिला की पहचान
सिंधु घाटी सभ्यता के समय से लेकर आज तक साड़ी ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं. संस्कृति, अर्थव्यवस्था और तकनीक बदल गई है, मगर साड़ी टिकी रही है. ये भारतीय सभ्यता के लिए गौरव की बात है.साड़ी छह से नौ मीटर लंबे कपड़े का एक ऐसा जादू है जो फैशन शो से लेकर बॉलीवुड फिल्मों और शहरों-गांवों की गलियों में हर जगह देखने को मिलती है. हर क्षेत्र की महिलाएं इसे पहनती हैं. आज साड़ी सदाबहार सुंदरता की पहचान बन चुकी है.साड़ी हमारी संस्कृति का इतना अहम हिस्सा रही है कि आज भी हर महिला की अलमारी में एक अच्छी साड़ी जरूर होती है. वैसे समय के साथ साड़ी बनाने का तरीका, बुनने का तरीका, छपाई और पहनने का तरीका सब बदल गया है. अब तो बाजार में एकदम तैयार बनी हुई सीधी साड़ियां भी मिलती हैं लेकिन असली कमाल तो असली साड़ी को पारंपरिक तरीके से लपेटने में होता है और इसे सलीके से पहनना आज भी एक कला माना जाता है.

हर रूप में खूबसूरत 
साड़ी की खासियत ये है कि इसे कई तरीकों से पहना जा सकता है. 39 साल की मलिका वर्मा (‘द साड़ी सीरीज’ डॉक्युमेंट्री की को-क्रिएटर) बताती हैं, “साड़ी को लगभग सौ तरीकों से लपेटा जा सकता है. आप इसे फॉर्मल या कैजुअल लुक दे सकती हैं. साड़ी लपेटने के ज्यादातर तरीके भारत के अलग-अलग इलाकों से जुड़े हैं, ठीक वैसे ही जैसे खाना और भाषाएं. हमारा मकसद था कि साड़ी पहनने के पुराने तरीकों को वापस लाया जाए और इन्हें आज की शहरी महिलाओं के लिए आसान बनाया जाए. पहले के समय में साड़ी बिना ब्लाउज के पहनी जाती थी और ज्यादातर तरीकों में पेटीकोट भी नहीं पहना जाता था.” मलिका वर्मा ने ये बात एक इंटरनेशनल न्यूज वेबसाइट (scmp) से बातचीत में कही.आजकल शहरों में साड़ी पहनने का तरीका ये है कि इसे कमर के चारों ओर कुछ फेरे लगाकर प्लेट्स बनाई जाती हैं और पेटीकोट की कमरबंद में टक दिया जाता है. साड़ी का बचा हुआ सिरा जिसे पल्लू कहते हैं, शरीर के सामने से होकर बाएं कंधे पर खूबसूरती से लटकाया जाता है. इसके साथ मैचिंग का फिटेड ब्लाउज पहना जाता है, जो भारत के पारसी समुदाय से आया है.

भारत में कहां की मशहूर हैं साड़ियां
भारत रेशमी साड़ियों का खजाना है, शायद इसलिए भारतीय महिलाओं के लिए एक अच्छी साड़ी पसंद करना मुश्किल हो जाता है. भारत के लगभग हर राज्य में साड़ी का एक खास रूप मिलता है. ये साड़ी सोने के धागों से बुनी जा सकती हैं, सूती कपड़े से बन सकती हैं या फिर हाथ से सिली हुई परंपरागत तरीके से सज सकती हैं. कांची, वाराणसी, मैसूर, धर्मवरम, चंदेरी जैसे कई शहर हैं जो रेशमी साड़ियों के लिए जाने जाते हैं. कांचीपुरम, जिसे कांची के नाम से भी जाना जाता है तमिलनाडु का एक ऐसा शहर है जो अपने कांजीवरम रेशमी साड़ियों के लिए मशहूर है. यहां साड़ियां शुद्ध शहतूत रेशम से बुनी जाती हैं.वाराणसी उत्तर प्रदेश का एक पवित्र शहर है जो अपनी बनारसी रेशमी साड़ियों के लिए जाना जाता है. यहां की साड़ियां अपने सोने चांदी के जरी के काम, खूबसूरत डिजाइनों और आकृतियों के लिए जानी जाती हैं. बनारसी साड़ियां शादियों और अन्य विशेष अवसरों के लिए काफी लोकप्रिय हैं.मैसूर कर्नाटक का एक खूबसूरत शहर है, जहां साड़ियां शुद्ध रेशम से बनी होती हैं. इनकी खासियत है इनका मुलायमपन और खूबसूरत फॉल. मैसूर की साड़ियों में ज्यादा डिजाइन नहीं होते, सिर्फ आसान बॉर्डर और आकृतियां होती हैं.आंध्र प्रदेश का धर्मवरम शहर अपने धर्मवरम रेशमी साड़ियों के लिए मशहूर है. यहां की साड़ियां चमकीले रंगों और सिंपल डिजाइनों के लिए जानी जाती हैं, जिनमें अक्सर मोर और पैस्ली जैसे परंपरागत चित्र बनाए जाते हैं. धर्मवरम की साड़ियों में चौड़े बॉर्डर होते हैं.मध्य प्रदेश का चंदेरी शहर अपने चंदेरी रेशमी साड़ियों के लिए मशहूर है. यहां की साड़ियां हल्की होने के साथ-साथ इन पर हल्के डिजाइन बने होते हैं. चंदेरी की साड़ियों में हल्के पेस्टल रंग और जरी का खास काम होता है. इसलिए ये गर्मियों की शादियों और अन्य औपचारिक कार्यक्रमों के लिए पसंद की जाती हैं.

JNS News 24

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