1 मई के दिन देशभर में मजदूर या श्रमिक दिवस मनाया जाता है
भारत में मजदूर दिवस मनाने की शुरुआत भले ही 1923 से हुई. लेकिन श्रमिकों का सम्मान और उनके अधिकारों की रक्षा करना सनातन धर्म का हिस्सा है.

1 मई के दिन देशभर में मजदूर या श्रमिक दिवस मनाया जाता है. भारत में मजदूर दिवस मनाने की शुरुआत भले ही 1923 से हुई. लेकिन श्रमिकों का सम्मान और उनके अधिकारों की रक्षा करना सनातन धर्म का हिस्सा है.अगर हम भारत की पुरानी श्रमिक संस्कृति पर नजर डालें तो दास या कर्मचारी शब्द का प्रयोग किया जाता था. लेकिन सनातन धर्म के अनुसार सबसे पहले मजदूर या श्रमिक की बात करें तो इसकी कोई विशिष्ट परिभाषा नहीं होगी, क्योंकि सनातन धर्म में कर्म, सेवा और कर्तव्यों पर जोर दिया गया है. सनातन धर्म में सेवा करना ही मुख्य उद्देश्य रहा है. देवताओं ने भी इसी आदर्श का पालन करते हुए सृष्टि का निर्माण और संचालन किया.सनातन धर्म में भगवान शिव पहले योगी, तपस्वी और कर्मयोगी कहलाएं. भगवान विष्णु ने भी अपने विभिन्न अवतारों से धर्म और मानवता की रक्षा की. इससे स्पष्ट होता है कि सनातन धर्म में शारीरिक श्रम ही नहीं बल्कि कर्म और सेवा भाव को भी महत्व दिया गया है. लेकिन बात करें मजदूर या श्रमिकों की तो हिंदू धर्म में श्रमिकों के श्रम को अत्यधिक सम्मानजनक स्थान प्राप्त है. क्योंकि यह न सिर्फ भौतिक पक्ष को मजबूत बनाता है बल्कि आध्यात्मिक उन्नति के लिए भी जरूरी माना जाता है. जैसे-कर्म का सिद्धांत हमें कार्यों की जिम्मेदारी लेने और निस्वार्थ भाव से उसे पूरा करने की प्रेरणा देता है.भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता में अर्जुन को कर्म योग का उपदेश दिया है.इसके साथ ही ज्योतिष में शनि को श्रमिकों और दीन-दुखियों का रक्षक माना जाता है.“न हि देहवशात्कर्म न च श्रामोऽपि वान्यथा।स्वधर्मेण यथाप्राप्तं यथा यत्नं समं धनं॥”शिव महिम्नस्तोत्र के अनुसार- व्यक्ति को श्रम और कर्तव्य को एक संजीवनी के रूप में अपनाना चाहिए, क्योंकि बिना श्रम के कोई काम सिद्ध नहीं होता.यथा काष्ठा मृदङ्गस्य तथा श्रमस्य कीर्तिता।
यथाहिंसा यथासाध्यान्ते कर्मणा पन्था यत्सुखम्।।”महाभारत के शांतिपर्व के इस श्लोक के मुताबिक- जैसे लकड़ी को काटकर उसका उपयोग किया जाता है. ठीक वैसे ही श्रम और मेहनत का सही तरीके से उपयोग किया जाना चाहिए. जो श्रमिक मेहनत करते हैं, वो अपने काम से सुख और सफलता पाते हैं.“शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नर: |ज्ञायोयवश्च यजते श्रीरुपं तन्मयोध्वरे।।“
भगवद गीता के अध्याय 3 श्लोक 35 में उल्लेख है कि- मनुष्य जैसा कर्म करता है, चाहे वह शारीरिक, मौखिक या मानसिक रूप से हो. उसे उस कर्म का फल जीवन में किसी न किसी रूप में जरूर मिलता है.“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन|
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥”गीता के अध्याय 2 श्लोक 47 में कहा गया है- “तुम्हारा अधिकार सिर्फ कर्म करने में है, उसके फल में नहीं. इसलिए कर्म करो और फल की चिंता किए बिना अपने कर्तव्य का पालन करो.